खड़ी बोली आधुनिक हिंदी कविता के प्रथम कवि नज़ीर अकबराबादी को भारतीय संस्कृति की साझी विरासत का प्रतिनिधि कवि कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह एक स्थापित तथ्य है कि नज़ीर अकबराबादी के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक कवि उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही अपनी कविता के उत्कर्ष पर पहुँच चुका था, पर बहुत दिनों तक उसे वह मान्यता न मिल सकी जिसका वह अधिकारी था। इसका कारण बहुत कुछ तत्कालीन आलोचना का अविकसित अवस्था में होना भी माना जा सकता है। नज़ीर के संबंध में तो यह मशहूर ही है कि वे आम आदमी के जीवन संघर्ष को उसी की भाषा में पूरी सहजता और सरलता के साथ प्रस्तुत करनेवाले जन कवि थे। राज दरबारों और महलों से उनका कोई संबंध नहीं था। उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए आम आदमी की भाषा में कविता लिखना अगर दरबारी संस्कृति से जुड़े नफासत पसंद कवियों को पसंद नहीं आया तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अपनी इस नफासत पसंदगी के कारण ही उर्दू वालों ने नज़ीर की कविता को महत्व नहीं दिया और वे बहुत दिनों तक उर्दू साहित्य में उपेक्षित ही रहे। उर्दू के प्रसिद्ध कवि और आलोचक फिराक़ गोरखपुरी के अनुसार ''नज़ीर अपने जमाने में और उसके बहुत दिनों बाद भी जन-साधारण में तो प्रिय रहे किंतु उन्नीसवीं शताब्दी भर में साहित्यिक मान्यता प्राप्त नहीं कर सके। तत्कालीन समालोचकों ने या तो उनकी पूरी उपेक्षा कर दी या फिर उन्हें याद भी किया तो निकृष्ट बाजारू कवि के रूप में, जो बहुधा अश्लील काव्य-रचना करता है। किंतु बीसवीं शताब्दी के दूसरे चतुर्थ में नज़ीर की गिनती महाकवियों में होने लगी। नज़ीर की चेतना अपने समय से बहुत आगे बढ़ी हुई थी, जिसे उनके समकालीनों ने बहुत पीछे की चीज समझा और उसको कोई महत्व नहीं दिया। नज़़ीर के समय का भारत सामंतवादी भारत था, जिसमें या तो धर्म और दर्शन के आधार पर साहित्य-सर्जन किया जाता था या फिर सौन्दर्य के बोध का ऐसा आधार ढूँढ़ा जाता था, जो सामंत वर्ग के जीवन में मिल सके। इसके विरुद्ध नज़ीर बिलकुल जन-साधारण के कवि थे जो सारे जीवन को जनसाधारण की दृष्टि से देखा करते थे। उन्होंने जीवन की प्रत्येक अनुभूति का चित्रण किया है किंतु उनकी चेतना जन-साधारण के जीवन के परिप्रेक्ष्य में ही देखी जा सकती है। वे प्रेम की बातें करेंगे तो भी उसमें राजकुमारों और राजकुमारियों के विरहाग्नि में जलने का वर्णन न होगा बल्कि साधारण जन का तूफानी प्रेम होगा, भक्ति की बातें करेंगे तो भी उस साधारण जन की भावना का चित्रण करेंगे जो कृष्ण और मुहम्मद दोनो के आगे नतमस्तक हो जाता है। महलों और दरबारों की सजावट की चकाचौंध और शाही सवारियों या शिकार के वर्णन की बजाय उनके यहाँ तैराकी, बलदेव जी का मेला, आगरे की ककड़ी, ताजमहल और रीछ का तमाशा दिखाई देगा। इसके अलावा वे कुछ ऐसी बातें भी कह जाएँगे जो सामंती युग के सभ्य समाज में वर्जित थीं -जैसे गरीबी का रोना, ऐसे यथार्थवादी कवि को सँभालना उस समय की सामंती दरबारी चेतना के वश की बात नहीं थी। इसलिए तत्कालीन आलोचकों ने बाजारूपन के नाम पर उनकी लोकप्रियता से छुट्टी पा ली।'' नज़ीर एक साधारण आदमी थे और न तो उन्होंने अपने समकालीन किसी शासक का आश्रय स्वीकार किया था, न ही वे किसी धर्म-संस्थान से संबद्ध थे। वे सीधे सीधे जनता से जुड़े थे। इसलिए जैसे उस काल की जनता उपेक्षित थी, वैसे ही नज़ीर को भी उपेक्षा का शिकार होना स्वाभाविक ही था। फलतः उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों ने या तो उनकी पूर्णतः उपेक्षा ही कर दी या उन्हें याद भी किया तो निंदा करते हुए। फिराक़ साहब ने स्वीकार किया है कि ''नज़ीर अकबराबादी उर्दू के ऐसे निराले कवि हैं जो वास्तव में अपने समय के बहुत पहले पैदा हो गए या यूँ कह लीजिए कि उन्होंने इस ढंग से कविता की जिसका मूल्यांकन डेढ़-दो सौ वर्ष के बाद ही किया जा सका। इसीलिए वे उर्दू काव्य के विकास की शृंखला की कोई कड़ी नहीं बनाते बल्कि दूरस्थ नक्षत्र की भाँति सबसे अलग जा पड़े हैं और घोर अँधेरे में अपनी टिमटिमाहट से हमेशा उजाला करते रहे।''
उर्दू की तरह हिंदी में भी नज़ीर को लेकर कमोवेश ऐसी ही स्थिति बनी हुई थी। वह रीतिकालीन प्रवृत्ति की जकड़ से बाहर निकल नहीं पा रही थी। नज़ीर ने दरबारी संस्कृति से अलग ब्रजभाषा की जगह एक ऐसी भाषा को अपनी कविता का माध्यम बनाया जो अब तक हिंदी में बोलचाल के रूप में तो प्रयुक्त हो रही थी पर कविता के लिए उसे उपयुक्त नहीं माना गया था। नज़ीर की आम 'आदमी की भाषा' तत्कालीन दरबारी संस्कृति की 'काव्य भाषा के प्रति विद्रोह करती लक्षित होती है। ऐसी स्थिति में अपने वजूद पर खतरा मंडराते देख हिंदी वालों ने उन्हें अधिक मोजरा नहीं दिया तो इस मनोवृत्ति को आसानी से समझा जा सकता है। उन्नीसवीं शताब्दी में उर्दू के साथ साथ हिंदी आलोचना भी अत्यंत अविकसित अवस्था में थी। इसके साथ साथ बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में 'हिंदी' और 'उर्दू' का आपसी विवाद कटुता की जिस बिंदु पर पहुँच गया था उसमें हिंदी आलोचकों का ध्यान नज़ीर की ओर न जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी।पर यह एक ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी जिसने हिंदी को बहुत नुकसान पहुँचाया। इसी समय हिंदी आलोचना में रामचंद्र शुक्ल का आगमन हुआ था। उन्होंने मलिक मोहम्मद जायसी, सूरदास और तुलसीदास पर तो आलोचनाएँ लिखीं पर नज़ीर पर अपनी नजरें इनायत नहीं की।
शुक्ल जी ने 'मुक्तक' और 'प्रबंध काव्य' के अतिरिक्त नए प्रकार की काव्यविधा 'पद्यात्मक निबंध' का उल्लेख किया है। 'पद्यात्मक निबंध' वस्तुतः फारसी की 'नज्म' है, जिसे 'हिंदी/हिंदवी' कवियों ने अपनाया था, पर गजल के सामने वह दबी रह गई थी। उसे पहली बार नज़ीर अकबराबादी ने महत्व दिया था। वस्तुतः नज़ीर अकबराबादी इस काव्यविधा के सबसे बड़े हिंदी कवि हैं, पर शुक्ल जी ने यह श्रेय उन्हें नहीं दिया है। शुक्ल जी के अनुसार प्रतापनारायण मिश्र ने अपने लिए इस विधा का चयन किया। पर उन्होंने यह नहीं बताया है कि मिश्र जी ने यह विधा कहाँ से प्राप्त की और इसकी पहचान क्या है। इसे उन्होंने 'इतिवृत्तात्मक पद' भी कहा है और भारतेंदु के 'अँगरेज राज सुख साज सजे सब भारी / पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी।' को इसका उदाहरण बताया है। पर यह कविता 'भारत दुर्दशा' नाटक में प्रसंगवश आई है। भारतेंदु ने इस विषय पर कोई स्वतंत्र कविता नहीं लिखी है। भारतेंदु के बारे में उन्होंने लिखा है कि ''भारतेंदु ने कविता की धारा को नए नए विषयों की ओर मोड़ा। इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति का था। उसी से लगे हुए विषय लोकहित, समाज सुधार, मातृभाषा का उद्धार आदि थे। हास्य और विनोद के नए विषय भी इस काल में कविता को प्राप्त हुए। रीतिकाल के कवियों की रूढ़ि में हास्यरस के आलंबन कंजूस ही चले आते थे। पर साहित्य के इस नए युग में आरंभ से ही कई प्रकार के नए आलंबन सामने आने लगे -जैसे, पुरानी लकीर के फकीर, नए फैशन के गुलाम, नोच खसोट करने वाले अदालती अमले, मूर्ख और खुशामदी रईस, नाम या दाम के भूखे देशभक्त आदि। इसी प्रकार वीरता के आश्रय भी जन्मभूमि के उद्धार के लिए रक्त बहाने वाले अन्याय और अत्याचार का दमन करने वाले इतिहासप्रसिद्ध वीर होने लगे।''
शुक्ल जी के अनुसार ष्विषयों की अनेकरूपता के साथ साथ उनके विधान का रंग भी बदल चला। प्राचीन घारा में 'मुक्तक' और 'प्रबंध' की प्रणाली चली आ रही थी। पुरानी कविता में 'प्रबंध' का कथात्मक और वस्तुवर्णनात्मक रूप ही प्रचलित था। वे कहते हैं कि या तो पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक वृत्तों को लेकर छोटे बड़े आख्यान रचे जाते थे, जैसे 'पद्मावत', 'रामचरितमानस', 'सुदामाचरित', 'चीरहरन लीला' आदि अथवा विवाह, मृगया, झूला, हिंडोला, ऋतुविहार आदि को लेकर वस्तुवर्णनात्मक प्रबंध। अनेक प्रकार के सामान्य विषयों, जैसे बुढ़ापा, विधि-विडंबना, जगतसचाईसार, गोरक्षा, माता का स्नेह, सपूत, कपूत... कुछ देर तक चलती हुई विचारों और भावों की मिश्रित धारा के रूप में छोटे छोटे प्रबंधों या निबंधों की चाल न थी। इस प्रकार के विषय कुछ उक्तिवैचित्र्य के साथ एक ही पद्य में कहे जाते थे अर्थात् वे मुक्तक की सूक्तियों के रूप में ही होते थे। पर नवीन धारा के आरंभ में छोटे छोटे पद्यात्मक निबंधों की परंपरा भी चली। पर इसी शताब्दी के आरंभ में, या उसके कुछ पहले से चली आती नज़ीर अकबराबादी की कविताओं को देखें तो इस कथन की त्रुटि उजागर हो जाती है। नज़ीर की 'आदमीनामा', बंजारानामा', 'बुढ़ापा', 'बल्देव जी का मेला', 'कंस का मेला', 'जगधर का मेला', 'बरसात की बहारें', 'होली' आदि कविताओं को देखें तो यह भ्रम दूर हो जाता है। पर शुक्ल जी ने या तो इस पर ध्यान नहीं दिया या उन्होंने नज़ीर को उर्दू का कवि मानकर इसकी उपेक्षा कर दी। अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में भी उन्होंने नज़ीर का चलते में ही उल्लेख किया। शुक्ल जी के अनुसार खड़ी बोली में पद्य रचना एकदम कोई नई बात न थी। नामदेव और कबीर की रचना में हम खड़ी बोली का पूरा स्वरूप दिखा आए हैं और यह सूचित कर चुके हैं कि उसका व्यवहार अधिकतर सधुक्कड़ी भाषा के भीतर हुआ करता था। शिष्ट साहित्य के भीतर परंपरागत काव्यभाषा का ही चलन रहा। इंशा ने अपनी अपनी रानी केतकी की कहानी में कुछ ठेठ खड़ी बोली के पद्य भी उर्दू छंदों में रखे। उस समय में प्रसिद्ध कृष्णभक्त नागरीदास हुए। नागरीदास तथा उनके पीछे होनेवाले कुछ कृष्णभक्तों के इश्क की फारसी पदावली और गजलबाजी का शौक दिखाई पड़ा। ...पीछे नज़ीर अकबराबादी ने; जन्म संवत 1797, मृत्यु 1877 कृष्णलीला संबंधी बहुत से पद्य हिंदी खड़ी बोली में लिखे। वे एक मनमौजी सूफी भक्त थे। यहाँ यह ध्यातव्य है कि शुक्ल जी ने केवल नज़ीर के पद्य के लिए ही हिंदी खड़ी बोली पद का उपयोग किया है। इसके पहले चाहे वे नामदेव की बात की हो या कबीर की, इंशा की बात की हो या नागरीदास की, सभी के पद्यों को उन्होंने खड़ी बोली ही कहकर पुकारा है। शुक्ल जी जैसे गंभीर और सतर्क रचनाकार के लिए यह महज संयोग की बात नहीं हो सकती है। संभव है उन्होंने नज़ीर की काव्य भाषा को देखकर उसमें आधुनिक खड़ी बोली हिंदी कविता का आरंभिक रूप दिखलाई पड़ा हो पर वे उस भाषा को 'शिष्ट साहित्य' की भाषा मानने को तैयार नहीं दिखाई पड़ते हैं। यही कारण है कि वे नज़ीर को खड़ी बोली हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार करते हुए भी उसकी उपेक्षा कर जाते हैं और उन पर महज कुछ चंद पंक्तियाँ लिखकर ही उनसे अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। बहुत दिनों तक शुक्ल जी की यह धारणा बनी रही थी कि खड़ी बोली कविता का माध्यम नहीं बन सकती है। यही कारण है कि कबीर आदि में खड़ी बोली का जो आरंभिक रूप दिखलाई पड़ता है उसे वे 'सधुक्कड़ी भाषा' कहकर बहुत कुछ अपना मंतव्य स्पष्ट कर देते हैं। शिष्ट साहित्य की भाषा से अलग देखे जाने के कारण ही कबीर जैसे तेजस्वी कवि को भी शुक्ल जी जैसे गंभीर आलोचक की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा था। कबीर इस माने में थोड़े भाग्यशाली माने जा सकते है कि जल्द ही उन्हें आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसा समर्थ आलोचक मिल गया जिसने उनके महत्व को स्वीकार करते हुए एक बड़े कवि के रूप में स्थापित किया। पर नज़ीर इतने भाग्यशाली नहीं थे। शुक्ल जी के बाद के आलोचकों और इतिहासकारों ने भी नज़ीर के प्रति उपेक्षा की दृष्टि ही अपनाई। नफासतपसंद कवियों को नज़ीर की कविता नागवार न गुजरने के कारण उर्दू वालों ने उन्हें तव्वज्जो नहीं दी तो दूसरी तरफ उनकी कविता को शिष्ट साहित्य से अलग रेखांकित कर हिंदी साहित्य साहित्य में भी उन्हें वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। इसका काररण बहुत कुछ शुक्ल जी द्वारा उन्हें अपने इतिहास में स्थान न देना भी है। इस प्रकार नज़ीर अकबराबादी उर्दू और हिंदी आलोचना, दोनों में ही उपेक्षित रह गए।
नज़ीर सही माने में जनकवि थे। उन्होंने अपनी रचनाओं का कोई संग्रह तैयार नहीं किया। उनकी रचनाओं को जनता ने कंठ और कागज पर सँजोकर रखा। यही कारण है कि उनका सारा काव्य स्फुट रूप में उपलब्ध है। डॉ. नज़ीर मुहम्मद ने समस्त उपलब्ध सामग्री के आधार पर 'नज़ीर ग्रंथावली' का संपादन किया है और यह सूचना दी है कि नज़ीर; मूल नाम वली मुहम्मद का जन्म 1735 ई. में दिल्ली में हुआ था। नज़ीर 22-23 वर्ष की उम्र में अपनी माँ और नानी के साथ आगरे चले आए। यहीं उन्होंने अरबी-फारसी की शिक्षा प्राप्त की थी। इंतजाम उल्लाह शहाबी ने अपने 'नज़ीरनामा' में सूचना दी है कि लगभग 1770 में जब नज़ीर की उम्र 35 वर्ष की थी उर्दू के प्रसिद्ध शायर मीर तकी मीर आगरा आए थे और उन्होंने नज़ीर की एक गजल पर अपनी शाबासी दी थी, जिसके बाद नज़ीर आगरा में शायर के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इन महानुभावों की मानें तो नज़ीर ने 1770 के आसपास कविता लेखन आरंभ कर दिया था और इस आधार पर उनका कविता काल 1770-1830 माना जा सकता है। नज़ीर अपने समय और आसपास की आम जिंदगी से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। हिंदी के दूसरे कवियों की तरह नज़ीर ने अपने समय की राजनीतिक हालत को नजरअंदाज नहीं किया। यद्यपि उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की बढ़ती ताकत के खतरों को नहीं देखा, पर दिल्ली-आगरा के इर्द-गिर्द की राजनीतिक स्थिति से उत्पन्न अव्यवस्था की अनदेखी नहीं की। मुगल दरबार में हिंदुस्तानी नवाबों के षड्यंत्रों, उत्तराधिकार के लिए शाहजादों के इन षड्यंत्रों में कठपुतली की भूमिका निभाने, अहमद शाह अब्दाली के लगातार होने वाले आक्रमणों और जाटों, सिखों, मराठों, रोहिल्लों आदि की लूटपाट से उत्पन्न अशांति और असुरक्षा को नज़ीर ने अपनी आँखों से देखा और सुना था और अपने दर्द को अपनी कविता में वाणी दी थी :
होती है जर के वास्ते हरज़ा चढ़ाइयाँ।
कटते हैं हाथ पाँव गले और कलाइयाँ।
बंदूकें और हैं कहीं तोपें लगाइयाँ।
कुल जर की हो रही है जहाँ में लड़ाइयाँ।
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए जर।
हर इक यही पुकारे है दिन रात हाय! जर।।
आगरा, जहाँ नज़ीर रहते थे, 1761 में भरतपुर के जाट राजा सूरजमल के अधिकार में था। 1785 से 1803 तक उस पर मराठों का कब्जा रहा। मराठा शासन में रिश्वतखोरी बढ़ जाने के कारण आर्थिक शोषण में भी वृद्धि हो गई। उन्होंने अपने अधीन क्षेत्रों में मूमि-कर बढ़ा दिया। कारीगरों और कलाकारों का भी अत्यधिक शोषण होने लगा। चारों तरफ शोषण, लूटपाट और अत्याचार का बोलबाला था। सामंतों का शोषण श्रमिकों, कृषकों, कारीगरों को किसी प्रकार जिंदा रहने की मुहलत देता था। अँगरेजों के शासन में देश की आर्थिक स्थिति और भी दयनीय हो गई। नज़ीर ने इस पर टिप्पणी की :
मारे हैं हाथ हाथ पै सब याँ के दस्तकार।
और जितने पेशेवर हैं सो रोते हैं ज़ार ज़ार।
कुछ एक दो के काम का रोना नहीं है यार।
छत्तीस पेशे वालों के हैं कारोबार बंद।
नज़ीर का स्वभाव अपने समय के कवियों से नितांत भिन्न था। उस समय का समाज मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त था। एक वर्ग में बादशाह, मनसबदार, जागीरदार, सेना के बड़े कर्मचारी और दरबार से संबंध रखने वाले उच्च वर्ग के व्यक्ति थे और दूसरे वर्ग में किसान और नीची श्रेणी के धंधे करने वाले साधारण लोग। जबकि उस समय के अन्य कवि उच्च वर्ग या दरबारों से अपना संबंध जोड़ते थे, नज़ीर का लगाव निहायत निम्न वर्ग या निम्न मध्य वर्ग से था। उनके स्वभाव की सरलता के बारे में नज़ीर मुहम्मद लिखते हैं : ''जब वे घर से निकलते तो अक्सर लोग रास्ता रोककर खड़े हो जाते और कविता सुनाने का अनुरोध करते। ...नज़ीर वहीं बैठकर कविता बनाते और घंटों सुनाते। फेरी लगाकर माल बेचने वाले उनसे कविताएँ लिखवा ले जाते और उन्हें गली कूँचों में गा-गाकर अपना माल बेचा करते। ककड़ी बेचने वाले के आग्रह पर उन्होंने 'आगरे की ककड़ी' नामक कविता लिखी। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं :
क्या खूब नर्मोनाजुक इस आगरे की ककड़ी।
और जिसमें खास कर फिर इस्कंद की ककड़ी।
किसी भिखारी के निवेदन पर उन्होंने 'कन्हैया का बालपन' नामक कविता लिख दी जो उसकी जीविका का साधन बन गई। उन्होंने तिल के लड्डू, रोटी, पेट, पैसा, कौड़ीनामा, बंजारानामा, आदमीनामा जैसे साधारण विषयों पर कविताएँ लिखीं जो दरबारी संस्कृति से जुड़े नफासतपसंद कवियों को अच्छी नहीं लगीं। इसी कारण उर्दू वालों ने नज़ीर की कविता को महत्व नहीं दिया और लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक वे उर्दू साहित्य में उपेक्षित ही रहे। दुर्भाग्यवश हिंदी साहित्य में भी उन्हें स्थान नहीं मिला, जिसका कारण शुक्ल जी द्वारा उन्हें अपने इतिहास में स्थान न देना भी है।
सांप्रदायिक सद्भावना की दृष्टि से तो नज़ीर निश्चित ही बेजोड़ हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में इसके जो नमूने पेश किए हैं वह निश्चित ही काबिलेतारीफ हैं। नज़ीर कहते हैं
तू सबका खुदा, सब तुझ पै फिदा, अल्लाहोगनी, अल्लाहोगनी।
ऐ किशन कन्हैया, नंदलला, अल्लाहोगनी, अल्लाहोगनी।
सूरत में नबी, सीरत में खुदा, ऐ सल्ले अलाह अल्लाहोगनी।
तालिब है तेरी रहमत का, बंदा ये नाचीज 'नज़ीर' तेरा।
तू बहरे करम है नंदलला, अल्लाहोगनी, अल्लाहोगनी।
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए बरबस कबीर याद आते हैं। अठारहवीं-उन्नीसवी शताब्दी में, जबकि सांप्रदायिक भावना में पहले वाली उदारता नहीं रह गई थी, इस प्रकार की कविता लिखना आग पर चलने के समान था। नज़ीर ने यह खतरा मोल लिया था और कमाल यह कि किसी ने इस पर आपत्ति नहीं की थी। इसका कारण यह जान पड़ता है कि साधारण जनता में सांप्रदायिकता का भाव न के बराबर था। सांप्रदायिकता उच्च वर्ग तक में ही सीमित थी। नज़ीर को इसका इतना ही दंड मिला था कि उर्दू समाज ने उन्हें अपनी जमात से बाहर कर दिया था। पर नज़ीर को इसकी फिक्र ही कहाँ थी! डॉ. नज़ीर मुहम्मद के अनुसार वे हिंदू जन-जीवन और संस्कारों, देवी-देवताओं आदि के संबंध में 'अत्यंत भावावेग के साथ काव्य-रचना करते हैं।' हिंदू धर्मग्रंथों से संबंधित अंतर्कथाओं, प्रतीकों और बिंबों का उपयोग करके चकित कर देते हैं। 'गणेश जी की स्तुति', 'कृष्ण कन्हैया की तारीफ', 'दुर्गा जी के दर्शन', 'जन्म कन्हैया जी', 'कन्हैया जी की रास', 'सुदामा चरित' आदि इसके सुंदर उदाहरण हैं।
प्रकृति संबंधी कविताओं में नज़ीर का उल्लास देखने योग्य है। यों तो संस्कृत और हिंदी काव्य में षट्ऋतु-वर्णन की परंपरा रही है, पर नज़ीर वर्षा ऋतु और वसंत ऋतु के दीवाने हैं। बरसात पर नज़ीर ने छह कविताएँ लिखी हैं, जिनमें 'बरसात का तमाशा' और 'बरसात की बहारें' तो पर्याप्त लंबी हैं। इनमें कवि का सूक्ष्म अवलोकन देखते ही बनता है। एक नमूना द्रष्टव्य है -
काली घटाएँ आकर, हो मस्त तुल रही हैं
दसतारे सुर्ख उसमें, क्या खूब घुल रही हैं
रुखसार पर बहारें, हर एक के ढल रही हैं
शबनम की बूँदें जैसे, हर गुल पे तुल रही हैं
आ यार, चल के देखें बरसात का तमाशा।
नज़ीर की कविताएँ आम जिंदगी के बीच से उठा ली गई कविताएँ हैं। नज़ीर सजे सजाए कमरों में भोग-विलास की बहुलता के बीच कविता नहीं रचते थे। वे जिंदगी को भरपूर जीते हुए काव्य-रचना करते थे। वे बरसात में लोगों को भीगते और गिरते-पड़ते देखते हैं, पसीने से लथपथ और मच्छरों-मक्खियों से होने वाली परेशानी का अनुभव करते हैं, बिच्छुओं और कनखजूरों से बचकर चलते हैं, लोगों के शरीर पर फोड़े-फुंसी, दाने और 'ददोड़े' देखते हैं, पूरी खाकर पेट में उठने वाले मरोड़ों आदि की चर्चा करते हैं। कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं :
कितने तो कीचड़ो की दलदल में फँस रहे हैं।
फुंसी किसी के तन में सर पर किसी के फोड़े।
छाती पै गर्मी दाने और पीठ में ददोड़े।
खा पूरियाँ किसी को हैं लग रहे मरोड़े।
आते दस्त हैं जैसे दौड़े इराकी घोड़े।
क्या क्या मची है यारो बरसात की बहारें।।
इस प्रकार कविता में नज़ीर ऐसी बातों का उल्लेख करते हैं जो समकालीन काव्य में तुच्छ और उपेक्षा की दृष्टि से देखी जाती थीं। वसंत ऋतु पर नज़ीर ने 11 कविताएँ लिखी हैं। यदि इनके साथ होली पर लिखी 21 कविताएँ जोड़ दें तो यह संख्या 32 हो जाएगी। इतनी बड़ी संख्या में किसी और कवि ने वसंत ऋतु और होली पर कविताएँ नहीं लिखी हैं। यह केवल कवि का प्रकृति के प्रति प्रेम ही नहीं दर्शाता, बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द और सहजीवन का भी परिचय देता है। इस काल के कवि अपने जीवन में प्रकृति से इतने दूर हो गए थे कि आलंबन या स्वतंत्र रूप में प्रकृति-वर्णन उनके लिए संभव ही नहीं था। व्रजभाषा के कवि छोटे छोटे हिंदू राजाओं के और हिंदी/हिंदवी के शायर दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद या रामपुर के दरबारों में जीविका के लिए आश्रय लेकर काव्य-रचना कर रहे थे। इन कवियों का सारा ध्यान मुगल बादशाह, नवाबों और राजाओं की खुशामद और मनोरंजन पर रहता था। यदि कभी उनके जमीर पर आघात लगता भी था तो वे रूठी हुई नायिकाओं की तरह आसानी से मान भी जाते थे। राज-दरबार उनकी नियति थे। वे नज़ीर की तरह नवाबों और राजाओं के राजाश्रय को ठुकराने की हिम्मत नहीं रखते थे। राजदरबार उनके सोने के पिंजरे थे : प्रकृति का विशाल आँगन उनके विचरण का क्षेत्र नहीं था। इसके विपरीत नज़ीर का जीवन जनता और प्रकृति के बीच बीतता था। इसलिए उनकी कविता में जनजीवन और प्रकृति दोनो का बाहुल्य दिखायी पड़ता है।
नज़ीर वसंत ऋतु का वर्णन करते समय उल्लास से भर उठते हैं। 'वसंत' संबंधी दूसरी कविता में उनका उल्लास इस रूप में दिखायी देता है :
जब खेत पे सरसों के दिया जाके कदम गाड़।
सब खेत उठा सर के ऊपर रख लिया झंखाड़।
महबूब रँगीलों की भी एक साथ लगी झाड़।
हर झाड़ से सरसों के भी कहती थी अभी झाड़।
सबकी तो बसंतें हैं पै यारों का बसंता।।
होली संबंधी कविताओं में नज़ीर की मस्ती, खुलापन आदि और भी रंग लाते हैं। सामान्य रूप में आज हमारी धारणा बन गई है कि मुसलमान होली में रंग खेलना पसंद नहीं करते। पर नज़ीर के जमाने में हिंदू-मुसलमान साथ मिलकर होली मनाने में परहेज नहीं करते थे। उन्होंने इसका वर्णन 'होली (1)' में किया है। सांप्रदायिक सद्भाव का यह अद्भुत नजारा है...
उधर से रंग लिए आओ तुम इधर से हम।
गुलाल अबीर मलें मुँह पे होके खुश हर दम।
खुशी से बोलें हँसें होली खेलकर बाहम।
बहुत दिनों से हमें तो तुम्हारे सर की कसम।
इसी उम्मीद में था इंतिजार होली का।
बरसात और वसंत के अतिरिक्त नज़ीर ने 'रात', 'चाँदनी', 'अँधेरी रात', 'आँधी' आदि पर भी कई कविताएँ लिखी हैं। यथार्थ-वर्णन की दृष्टि से ये कविताएँ बेजोड़ हैं। आँधी का वर्णन देखिए :
किसी ने भागकर जल्दी से, जा घर का लिया आँगन।
गिरा कोई गढ़े में और कोई भागा कहीं दुश्मन।
किसी के छिन गए कपड़े, उचक्कों की गई वां बन।
किसी की उड़ गई पगड़ी किसी का फट गया दामन।
आम जन की जिंदगी का उल्लास उसके त्योहारों, मेलों और तमाशों में दिखाई देता है। नज़ीर की नजरों से समकालीन जीवन का यह पक्ष कैसे ओझल रहता। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों, दोनो के पर्वों, त्योहारों और मेलो-तमाशों का खुले दिल से वर्णन किया है। मुस्लिम त्योहारों में उन्होंने 'शब्बरात', 'ईद', 'इदुलफित्र' और 'ईदगाह' अकबराबाद का अपनी आँखों देखा और अनुभव किया हुआ वर्णन किया है। 'शब्बरात - 1' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं :
क्योंकर करे न अपनी नमूदारी शब्बरात।
चल्पक, चपाती, हलवे से है भारी शब्बरात।
जिंदों की है जुवाँ की मजेदारी शब्बरात।
मुर्दों कह रूह की है मददगारी शब्बरात।
लगती है सबके दिल को गरज प्यारी शब्बरात।।
पर नज़ीर इस हँसीखुशी के त्योहार में गरीबों की क्या स्थिति है, इसका उल्लेख इन शब्दों में करते हैं :
ठिलिया, चपाती हलवे की तो सबमें चाल है।
अदना गरीब के तईं यह भी मुहाल है।
काले से गुड़ की लपटी कढ़ी की मिसाल है।
पानी की हांड़ी, गेहूँ की रोटी भी लाल है।
करती है ऐसी दुखिया पिसनहारी शब्बरात।।
नज़ीर ने इस्लाम से जुड़े फकीरों और संतों के साथ साथ हिंदू देवताओं, हरि, कृष्ण, भैरों, दुर्गा, गुरु नानक शाह आदि की प्रशंसा में गहरी निष्ठा के साथ कविताएँ लिखी हैं। 'गणेश जी की स्तुति' का एक चरण है :
इक दंत को जो देखा किया खूब है बहार।
इस पै हजार चंद की शोभा को डालूँ वार।
इनके गुणानुवाद का है कुछ नहीं शुमार।
हर वक्त दिल में आता है अपने यही विचार।
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि औ अन-धन गनेश जी।।
भैरों और दुर्गा संबंधी कविताओं में भी इसी आस्था के दर्शन होते हैं। आस्था के साथ साथ नीति, धर्म और आध्यात्मिक विचारों की भी झड़ियाँ नज़ीर की कविताओं में देखने को मिलती हैं। 'इश्क की मस्ती', 'दुनिया बदले की जगह है', 'दुनिया धोके की टट्टी है', 'दुनिया भी क्या तमाशा है', 'खुदा की बातें खुदा ही जाने', 'तवक्कुल', 'गफलत का ख्वाब', 'तंबीहुल गाफिलीन', 'खुदा की दी हुई नेमतें', 'फना', 'मौत का धड़का', 'मौत की फिलासफी', 'मौत', 'दुनियाँ में', 'दुनिया के मरातिब काबिले ऐतबार नहीं' आदि में कवि का अपना अध्ययन, दीर्घ जीवनानुभव और सोच का तर्क भी शामिल हो गया है। इनमें ढेर सारे चरण उद्धरणीय हैं। पर स्थानाभाव के कारण हम कुछ ही चरणों को उद्धृत कर रहे हैं।
क्या हिंदू, क्या मुसलमां, क्या रिंदो गवरो काफिर।
नक्कास क्या मुसव्विर क्या खुश नवीस शायिर।
जितने 'नज़ीर' हैं, याँ, एक दम के हैं मुसाफिर।
रहना नहीं किसी को चलना है सबको आखिर।
दो चार दिन की खातिर, याँ घर हुआ तो फिर क्या?
'बंजारानामा'' नज़ीर की एक प्रसिद्ध कविता है, जिसमें जिंदगी की नश्वरता और अंतिम त्रासद नियति का वर्णन किया गया है। इसका एक उद्धरणीय चरण है :
गर तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है।
ऐ गाफिल, तुझसे भी चढ़ता एक और बड़ा व्यापारी है।
क्या शक्कर मिश्री कंद गरी क्या सांभर मीठा खारी है।
क्या दाख, मुनक्का सोंठ, मिरच, क्या केसर लौंग सुपारी है।
सब ठाट पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा।।
''रोटियाँ' नामक कविता में नज़ीर ने रोटी के प्रति अपने जज्बात व्यक्त किए हैं। नज़ीर के जमाने में शराब, साकी और मयखाने पर कविता लिखी जा सकती थी, रोटी, रोटी खाने वालों और तंदूर पर नहीं। नज़ीर ने इस परंपरा को तब तोड़ने की हिम्मत दिखाई थी जबकि वातावरण उसके अनुकूल नहीं था। दरअसल शराब उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करती थी रोटी आम जनता का। रोटी के प्रति इतनी गहरी आत्मीयता और प्यार आधुनिक कवियों में केवल नागार्जुन की कविता में दिखायी पड़ता है। नज़ीर लिखते हैं :
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ।
फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियाँ।
आँखें परीरुखों से लड़ाती हैं रोटियाँ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ।
जितने मजे हैं सब दिखाती हैं रोटियाँ।
रोटी को 'परीरुख' (परियों जैसी शक्ल सूरत वाली) कहना नज़ीर जैसे फक्कड़ और मस्त कवि के लिए ही संभव था। रोटी पर इस तरह की कविता या तो कबीर लिख सकते था या नागार्जुन। 'चपाती', 'पेट की फिलासफी', 'पेट' आदि नज्मों में भी ऐसे ही भाव व्यक्त हुए हैं।
नज़ीर की एक प्रसिद्ध कविता है 'आदमीनामा' जिसमें मनुष्य के जीवन के अंतर्विरोधों आदि पर गहरा और चुटीला व्यंग्य किया गया है।
मस्जिद भी आदमी ने बनायी है याँ मियाँ।
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्वाँ।।
पढ़ते हैं आदमी ही क़़ुरान और नमाज याँ।
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियाँ।।
जो उनको ताड़ता है सो है वह भी आदमी।।
नज़ीर वस्तुवर्णन के सिद्ध कवि हैं। उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे काल्पनिक वस्तुओं का नहीं, बल्कि अनुभवसिद्ध वस्तुओं का वर्णन करते हैं। वस्तुओं के बारे में उनका सूक्ष्म निरीक्षण और उनके प्रति लगाव अद्भुत है। 'शहर अकबराबाद', 'ताजगंज का रोजा', 'शहर आगरा', 'शहरे आशोब', भूचालनामा' आदि नज्मों में नज़ीर का आगरा के प्रति लगाव देखते ही बनता है। नज़ीर आगरा के ताजगंज मुहल्ले में रहते थे। भला वे उसे कैसे भूलते। प्रथम तीनो कविताओं में उन्होंने आगरा शहर की खूबियों का, उसकी सुंदरता का, बाजारों और गलियों का, यमुना की नहर और उसमें तैराकी का, ताजगंज की खूबसूरती का, उसकी मस्जिद और मीनारों का, ताजमहल का वर्णन करते हैं, पर उसकी वर्तमान बदहाली का उल्लेख करने से भी नहीं चूकते -
तोड़े कोई किले को कोई लूटे शहर को।
अब किस से अपनी माँगे भला दाद आगरा।।
अब तो जरा सा गाँव है, बेटी न दे इसे।
लगता था बर्ना चीन का दामाद आगरा।।
वस्तु-वर्णन के साथ साथ नज़ीर ने कथा-वर्णन में भी रुचि दिखाई है। 'जनम कन्हैया जी', 'बालपन-बाँसुरी बजैया का', 'खेल कूद कन्हैया जी का', 'कन्हैया जी की रास', ब्याह कन्हैया का', 'दसम कथा'', 'हरि की तारीफ', 'श्रीकृष्ण व नरसी मेहता', 'सुदामा चरित', 'महादेव जी का ब्याह', 'हंसनामा', 'किस्सा लैला मजनूँ', 'पोदने और गढ़ पंख की लड़ाई' आदि कथा-वर्णन के बेहतरीन नमूने हैं। इनमें उत्सुकता पैदा करने और उसे बनाए रखने की क्षमता भरपूर मात्रा में है, जो कथा की विशेषता है। वह विशेषता नज़ीर के कथा-वर्णन में पर्याप्त मात्रा में है। इसके साथ ही कथा-नायक के प्रति भरपूर आस्था भी कवि में है। कृष्ण के प्रति उसकी आस्था उसे सूर आदि भक्त कवियों की पंक्ति में ला खड़ा करती है :
फिर आया वाँ एक वक़्त ऐसा जो आए गर्भ में मनमोहन।
गोपाल, मनोहर, मुरलीधर, श्रीकिशन, किशोर न, कंवल नयन।
घनश्याम, मुरारी, बनवारी, गिरधारी, सुंदर श्याम बरन।
प्रभुनाथ बिहारी कान्ह लला, सुखदायी, जग के दुखभंजन।
जब सायत परगट होने की, वाँ आई मुकुट धरैया की।
अब आगे बात जनम की है, जै बोलो किशन कन्हैया की।।
'बालपन-बाँसुरी बजैया का', 'बाँसरी', 'खेल कूद कन्हैया जी का', 'कन्हैया जी की रास', ब्याह कन्हैया का' आदि में भी हिंदुओं के भगवान कृष्ण के प्रति नज़ीर की आस्था देखने योग्य है, जो उन्हें रसखान और रहीम की परंपरा में ला खड़ा करती है।नज़ीर में साझी विरासत का जो प्रखर रूप दिखलाई पड़ता वह इसी स्वस्थ परंपरा का पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।
* इस आलेख में उद्धृत काव्यांश नज़ीर मुहम्मद द्वारा संपादित ' नज़ीर ग्रंथावली ' से लिए गए हैं।